वो काली रात… (episode 3)

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वो काली रात… Episode 2

और अब Episode 3



दरवाज़े पर एक अपरिचित बूढ़ी औरत खड़ी थी। वो बूढ़ी औरत के सफ़ेद बाल ऐसे लग रहे थे जैसे किसी ने उनको सफ़ेदी से से रंगा था। उसके चेहरे पर जो हाव-भाव थे उससे मुझे उस से डर लग रहा था। मेरा ये डर नाजायज़ नहीं था। उस बुढ़िया के हाथ में एक बड़ा-सा ख़ंजर था। उस ख़ंजर के फल की धार इतनी तेज थी कि मुझे दूर से ही वो अपने गले पर महसूस ही रही थी।
“मिष्ठी कहाँ है?”—मैं पूछा। मैं एक पुतला था। मैं जानता था कि मेरी आवाज़ कमरे में किसी को सुनाई नहीं दे सकती थी। मैं न तो किसी से मदद की गुहार लगा सकता था न ही खुद को बचा सकता था।
“मैं जानती थी कि उसने तुम्हें छुपा रखा है।”—बुढ़िया ने कहा।
“तुमने मिष्ठी और सिया के साथ क्या किया?”—मैं चीख़ा। जाने क्या हो गया था मुझे? मैं जानता था कि मुझे वो बुढ़िया नहीं सुन सकती थी।
“तुम मिष्ठी और सिया की चिंता मत करो। उनका ख़्याल मैं रख लूँगी।”—बुढ़िया ने ख़ंजर के फल को देखते हुए मुस्कुरा कर कहा।
“तुम मुझे सुन सकती हो।”—मैं ने पूछा। मैं अचंभित था। आख़िर वो मुझे कैसे सुन सकती थी। मैं तो एक पुतला था। क्या हो रहा था।
“मैं तुम्हें सुन सकती हूँ। मैं तुम्हें पहचानती हूँ। आज मैं तुम्हें बताउँगी कि मुझसे उलझने का क्या अंजाम हो सकता है?”—उस बुढ़िया ने कहा।
“तुम किस बारे में बात कर रही हो? सिया और मिष्ठी कहाँ हैं?” मैं ने फिर से पूछा। मुझे पता था कि मेरा अंत निकट है पर मेरे दिमाग़ में सिर्फ़ एक सवाल थाः मिष्ठी कहाँ है। मुझे डर था, मैं शायद अंदर ही अंदर जानता था कि उनके साथ क्या हुआ था।
पर मेरे दिमाग में अब उससे भी बड़ा सवाल था। मैं जानता चाहता था कि मेरे साथ ये क्या हो रहा है। आख़िर कौन है ये बुड्ढी औरत और इसकी मुझसे क्या दुश्मनी। एक पुतले से उस औरत की क्या दुश्मन हो सकती थी। मैं तो उसका विरोध भी नहीं कर सकता था।
मेरे मन में अब भी मिष्ठी और सिया की तस्वीर धूम रही थी। मैं मना रहा था कि वो दोनों वहाँ आ जाए और इस बात की तसल्ली करा जाएँ कि वो ठीक है। अग़र ये मेरा अंत था तो मैं उस दोनों के एक बार देख कर उन्हें अलविदा कहना चाहता था।
“अब मैं पहले तुम्हारी आँखें निकालूँगी, फिर जीभ और जब मैं तुम से बदला ले लूँगी फिर मैं ये ख़ंजर उतारकर तुम्हें मौत दूँगी।”—वो बुढ़िया ने कह कर चाक़ू का फल मेरे बेजान शरीर पर फिराया। पुतले को भला क्या महसूस होना था? पर मुझे डर लग रहा था। आख़िर थी तो जान मुझ में भी।
“कौन हो तुम?”—मैं ने बुढ़िया से पूछा।
इस पर बुढ़िया मुझे आश्चर्य से देखने लगी। मुझे नहीं पता था कि क्यों पर उस के हाथ रुक गए थे। शायद कुछ था जो वो मुझसे कहना चाहती थी पर हिचक रही थी। कुछ था तो जो वो मुझे बताना चाहती थी।

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