आज की कहानी है सोनम की। एक ऐसी लड़की जिसने सब कुछ सहने के बाद भी हार नहीं मानी और अंततः सम्मान के साथ अपने अधिकारों को पाया। सोनम की हिम्मत ऐसी थी कि उसकी कहानी आपको सुनाते हुए लेखक को फ़क्र महसूस हो रहा है। (नोटः-यह कहानी सच्ची घटना का काल्पनिक रूपांतरण है। असल घटना और इस कहानी में समान्यताएं होंगी।)
वो रात सोनम के लिये बहुत ही लम्बी थी। घड़ी का काँटा जैसे उसके दिल की धड़कन के साथ ताल से ताल मिला कर चल रहा था। ऐसा नहीं था कि सोनम डरी हुई हो। सोनम तो डर को हफ़्तों पहले अपने पिता के घर की दहलीज़ पर छोड़ कर आई थी। पर हमेशा से सोनम निर्भीक और लड़ाकू नहीं थी। वो तो ऐसी लड़की थी जिसे लोग कभी-कभी गाय भी कह दिया करते थे। न वो किसी का विरोध करती थी, न किसी से बहस। उसका दिल भी ऐसा था कि लोग उस पर गर्व करने से ज़्यादा उस पर तरस खाते थे। लोगों को उससे कभी भी किसे से लड़ने की उम्मीद नहीं थी। पर वो सब एक दिन में ही बदल गया।
सोनम के पिता बड़े पेशेवर दलाल थे। लोगों आते जाते उन को दुआ सलाम करते थे। साथ में पैसे की भी कोई कमी नहीं थी। सब कुछ था उनके पास—सिवाए नैतिकता के। वो नैतिकता जिसके बारे में सोनम के पिता बड़े-बड़े दंभ भरते थे, पर बंद दरवाज़े के पीछे ठीक उससे उलट। फिर जाने कैसी संगत थी सोनम के पिता उस से चिढ़ते थे। वो तो समाज में उनके रुतबे की बात थी वरना उन्होंने उसे पढ़ने भी न दिया होता। वो कभी किसी महिला को रुतबे में किसी मर्द से आगे निकलते नहीं देख सकते थे। उस पर आए दिन भक्ति चैनलों पर बाबाओं की बक-बक देख कर उनका रवैया और बिगड़ता जा रहा था।
शायद यही कारण था कि स्व-निर्भरता को अपना पहला ध्येय बनाने वाली सोनम को वक़्त से पहले अपना घर छोड़ देना पड़ा।
वो दिन सोनम का जन्मदिन था। वो अठ्ठारह साल की होने जा रही थी। उसे यक़ीन था कि कालेज में दाख़िले के बाद वो विधि की पढ़ाई करने का सपना पूरा कर पाएगी। पर उसके जन्मदिन वाले दिन जो हुआ उसके दिमाग़ से उज्जवल भविष्य का फ़ितूर निकल गया।
उस दिन वो अपने पिता के पास विधि विद्यालय में दाख़िले का फ़ार्म लेकर जाने वाली थी। आने वाले मार्च में ही बारहवीं का इम्तिहान होने के था और वो मौक़े पर सारी औपचारिकता पूरी कर लेना चाहती थी। जब वह घर पहुँची तो उसे पता चला कि मेहमान आए हुए हैं। माँ ने तो आते ही उसे कपड़े बदल लेने के लिये कहा। बात भी ठीक थी। पर फिर माँ उसके साथ कमरे में गई जहाँ उन्होंने उससे नए कपड़े पहनने के लिये कहा। सोनम के लिये ये सब कुछ नया नहीं था। आए दिन उसके लिये कपड़े आते थे—पापा का सम्मान जो जुड़ा था उसके कपड़ों से।
सोनम ने कपड़े बदले और कमरे के बाहर आ गई अपना फ़ार्म लेकर। मेहमान तो पापा से ऐसे बातें कर रहे थे जैसे उनसे ज़्यादा धनिष्ठा कोई न हो।
“आज पुष्पा नहीं आई। तुमको ही नाश्ते की ट्रे लेकर जाना होगा।”—माँ ने हाथ में नाश्ते की बड़ी-सी तश्तरी पकड़ा कर कहा और सोनम के हाथ से दाख़िले का फ़ार्म ले लिया।
सोनम ने हाँ में सिर हिला दिया और तश्तरी लेकर मेहमान घर में पहुँच गई। जैसे ही वो वहाँ पहुँची उसके क़दम ठिठक गए। मेहमान घर में एक दो नहीं बल्कि बीस लोग थे। सब के चेहरे ख़ुशी से खिल रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे मेहमान-घर में कोई महफ़िल सजी हो। वो आई और जब उसने ट्रे को टेबल पर रखा तो उसकी नज़र सभी मेहमानों पर पड़ी। सब उसे ही देख रहे थे। ख़ास तौर पर उनमें से एक अंकल जी। सोनम को उनकी नज़र खोटी लगी। पर वो मेहमानों को नाराज़ नहीं करना चाहती थी सो उसने हमेशा की तरह अपना चेहरे का भाव शिथिल रखा।
फिर सोनम की नज़र अपने पिता पर पड़ी जो सोनम को अपने पास बुला रहे थे।
सोनम को लगा था कि जैसे उसकी दुनिया बदल गई हो। उसके पिता ने इससे पहले उससे लोगों के सामने बात तक की थी। सोनम को लगा कि उसका अछूतपन अब दूर हो गया है। वो समझ गई कि ये सभी लोग उसकी जन्मदिन की पार्टी में आए है। सोनम को लगा कि अगर उसके पिता ने किसी कारण से अपने रवैये में बदलाव करके पार्टी दी है तो इससे बड़ी बात और कुछ नहीं हो सकती। वो अपने पिता के साथ बैठ गई।
वो रात सोनम की अपने घर में आख़िरी रात थी।
सुबह तड़ाके उसने सोमी को शायद शहर के अंतिम बचे पी०सी०ओ० से फ़ोन किया। सोमी स्कूल के अंतिम साल में पड़ने वाला वह लड़का था जिसके बारें में अफ़वाह थी कि वो उसे दिलो-जान से चाहता है। सोनम ने पहले कभी उस लड़के से बात भी नहीं की थी। यहाँ तक कि उस लड़के का फ़ोन नम्बर भी सोनम को बड़ी मुश्किल के बाद सोमी की प्रोजेक्ट कापी से मिला था जिसे वो सँभल कर शायद इसी दिन के लिये रखी थी।
“मैं काजीनाका के पीसीओ पर हूँ और चाहती हूँ कि तुम मुझे अपने साथ अपने घर ले चलो। अगर आज तुमने किसी भी कारण से मेरे साथ आने से मना किया तो ये हमारी और तुम्हारी पहली ही नहीं… आख़री बात होगी।”—सोनम ने कह कर फ़ोन रख दिया था। उसको किसी बात का डर नहीं था अब। या शायद दिमाग़ ऐसा सुन्न हो गया था कि डर महसूस नहीं हो रहा था।
उम्र में उससे छः साल बड़ा सोमी अनाथ था और चैरिटी के अलावा अपनी मज़दूरी के बल पर जी रहा था। सोनम से बात करने के बीस मिनट बाद वो उसे लेने पहुँच गया और सोनम उसकी टूटी झोपड़ी में आ कर बस गई। उसके बाद शुरु हुआ दुनिया के अनजाने रहस्यों से सोनम का सामना।
घर छोड़ने से पहले सोनम को बताया जाता था कि झोपड़-पट्टी में रहने वाले ग़रीब ही बलात्कार जैसी घटना करते हैं, पर सोनम ने देखा कि इस झोपड़ के लोगों में ऐसा कुछ नहीं था। इस झोपड़ी के ग़रीब ही टूटी पगडंडी को साफ़ करते थे, वो ही उसकी मरम्मत करते थे। शहर की नगरपालिका को अमीरों के घर साफ़ करने से फ़ुर्सत नहीं थी तो ग़रीबों ने पन्नी-पालीथीन को प्रतिबंधित कर दिया था और जो पालीथीन उनकी झोपड़ी के पास राहगीर और नगरपालिका के सफ़ाई कर्मी फेंक जाते थे उसको भी झोपड़ी वालों ने अपनी आय का ज़रिया बना लिया।
झोपड़ी तो वो जगह सिर्फ़ कहने के लिये थी। वो अपने आप में एक महानगर था जो पूरे शहर से ज़्यादा साफ़ था। और इस महानगर का पार्षद, शिक्षक और मुखिया सब सोमी था। वही सोमी जिसने सोनम की एक पुकार पर एक पल भी नहीं सोचा और उसे ले आया।
सोनम का अब मन बन गया था कि वो हमेशा के लिये सोमी के साथ रहना चाहती है।
वो शाम वो सोमी का इंतज़ार कर रही थी। झोपड़ी के वे बच्चे जो अब सोनम से पढ़ते थे, वो भी जा चुके थे।
उस शाम जब दरवाजा खटखटाया गया तो सोनम ने तुरंत दरवाजा खोल दिया। तीन दिन बाद वो दिन आया जब वो हाईकोर्ट में खड़ी जज साहब के सामने अपने होने का सबूत पेश करने वाली थी।
पेशी से पहले कोर्ट के बाहर उसका पिता मिला। उसने सोनम को अॉफर दिया—“कोर्ट में कुछ मत कहना। जज साहब कोई भी सवाल पूछें, जवाब में देना। वो लड़का तुम्हारे लायक़ नहीं है। मुझ पर भरोसा करो, मैं तुम्हारा बाप हूँ। तुम्हारा बुरा नहीं चाहूँगा। आ जाओ वापस। मैं अपनी ग़लती मान रहा हूँ। वादा करता हूँ कि अगली बार लड़के वाले को बुलाने से पहले तुम्हें बता दूँगा।”
तो क्या होगा सोनम के साथ? क्या वो अपने अधिकारों को पा सकेगी और अपनी ज़िंदगी पर अधिकारी पा पाऐगी। जानने के लिये कल फिर नौ बजे मिलते हैं।