चेतावनीः यह पोस्ट सदियों से जड़े जमाई धारणाओं पर कटाक्ष करती है। भावनाओं को ज्ञान का कवच पहना कर रखें। किसी तरह से भावनाओं के आह्त होने पर लेखक की ज़िम्मेदारी नहीं होगी। फिर भी पोस्ट पर टिप्पणी करनी हो तो कमेंट बाक्स में लिख कर करें। धन्यवाद।
आप आज कल जब भी टी०वी० को खोलेंगे तो आपका ध्यान मनोरंजन चैनल की जगह न्यूज़ चैनल पर जाएगा। कारण, हमारे देश का न्यूज़ चैनल मनोरंजन चैनल से ज़्यादा मनोरंजन पैदा करने लगा है। सत्ता पर पिछवाड़ा जमाए सालों से बैठे धर्म और समाज के ठेकेदारों से सवाल करने का दम तो ज़्यादातर मीडिया, जिसे आप संक्षेप में जी मीडिया या जी हाँ मीडिया भी कह सकते है, में पहले भी नहीं था। अब आज-कल इस जी मीडिया बड़ा अच्छा मुद्दा मिल गया हैः राम मंदिर। उस पर तूल देने के लिये आ गया मिथक को त्योहार की तरह मनाने वाला उत्सव कुंभ।
पर मैं राम मंदिर पर कुछ नहीं कहूँगा। राम मंदिर पर मैं ने पहले ही एक पोस्ट लिख दिया है। आज मैं राम मंदिर के मुद्दे को सबसे ज़्यादा तूल देने वालों पर कटाक्ष करूँगा। इन लोगों को हम एक भ्रमित करने वाले नाम से बुलाते हैः संत समाज।
तो क्या है संत समाज? पहले तो पता करें कि संत कौन है? कितना जानते हैं आप संत के बारे में? किसे आप संत कह सकते हैं? क्या कोई भी संत हो सकता है? क्या आप संत हैं? क्या आप के आस-पास कोई संत है? तो संत की परिभाषा क्या है। http://vedicupasanapeeth.org/hn/poorn-sant-ke-lakshan_090568/ पर उपलब्ध तनुजा ठाकुर के लेख में पूर्ण-संत के तेरह गुण दिए हैं। उसके इस ज्ञान का क्या आधार है ये उन्होंने पोस्ट में कहीं नहीं लिखा। लेखिका के लेखक से कोई संबंध नहीं और लेखक लेखिका के लेख की सराहना करता है।

जितना मैं पढ़ता हूँ मैं पाता हूँ अनेकों बार संत को धर्म का रक्षक कहा जाता है। सनातन धर्म का रक्षक कहा जाता है। तनुजा ठाकुर जी के पोस्ट में बड़ा गुणगान किया गया है संत पर, लेकिन ज़रा ग़ौर कीजियेगा कि क्या हमारे संत वैसे हैं। संत का आज के समय में मतलब है उस व्यक्ति से जो अपने आप को भगवान के क़रीब बताता है। अब ज़रा समय के पन्नों को उठाइये और बताइये क्या आपको नहीं लगता कि संत के भेष में अब मानवीय भेड़िये संत बनकर घूम रहे हैं?
सनातन-सनातन चिल्लाने वाले यह कथित संत सिर्फ़ मंदिर बनाना जानते हैं। भागवत का पाठ कर के लाखों पैदा करना संत के फ़ैशन का एक हिस्सा है। हज़ारों एकड़ की ज़मीन पर फ़न मानकर बैठना संत की पहली निशानी है। जब इन संतों का क़ाफ़िला निकलता है तो लगता है जैसे किसी राजा की सवारी जा रही है। और संत-समाज… संत-समाज वही है जिसने आशाराम जैसे को लड़कियों का बलात्कार करने की पूरी छूट दे दी। ये वही संत-समाज है जिसने राम-रहीम जैसों को घृणित अपराध करने पर भी ऐसा संरक्षण दिया कि वह सालों तक अपराध करता गया।
संत धर्म की रक्षा करता है और भगवान के क़रीब रहता है। पर ज़रा बताए तो आज के संत-समाज ने किसकी रक्षा की। ज़्यादा दूर देखने की ज़रूरत नहीं, अभी दस सालों की ही बात कर लें। तो बताएँ संत-समाज ने 2008 से 2018 तक क्या-क्या किया। कितने ग़रीबों को ग़रीबी से निकाला, कितने दहेज के लोभियों को सजा दिलावाई, कितने मनोरोगियों को ठीक किया, कितने बतात्कारीयों को सजा दिलाई। ज़रा बताए तो संत-समाज कि ये किस धर्म की रक्षा कर रहे थे पिछले दस सालों से।
पर संत-समाज कोई जवाब नहीं देगा। ये कोई जवाब नहीं देंगे। संत समाज ने कुछ किया हो या नहीं, संत-समाज ने सरकार में अपने गुर्गे भेजने का काम बख़ूबी किया। भेड़िये आस्था जैसे चैनल पर बक-बक करके संत की उपाधि पा जाते हैं। फिर यही भेड़िये-संत अपना शिकंजा उन संतों पर कसना शुरू करते हैं जिनके पास हृदय है और ज्ञान भी।
इस साधू के चोले में छुपे भेड़ियों के बारे में संत-समाज का क्या कहना। जब जनता का ड़डा पड़ा तब तो फ़र्ज़ी संतों और अखाड़ों की सूची जारी करनी शुरु की, वरना वो भी कभी न करते। इन संतों को वो सुख-सुविधा मिलती है कि आप अचंभित रह जायेंगे। लाखों तो देशी बैंक के खाते में होते हैं और करोड़ों विदेशी खातों में। न इनको टैक्स लगता है न ही मंत्री इन पर लगाम लगाते हैं।और ये करते क्या है? आपको अदृश्य स्वर्ग बेचते हैं, क्योंकि सारे पाप तो आप ने किये हैं न। मोक्ष के ख़्याली पुलाव बनाकर लोगों को ठगते हैं क्योंकि कौन इस दुनिया से बोर होकर अनंतकाल तक के लिये स्वर्ग के सुख नहीं भोगना चाहेगा जहाँ–वेदों के अनुसार–आप कुछ महसूस नहीं कर सकते। कोई भी समस्या हो तो समस्या पर संत-समाज को कोई काम करना नहीं भाता, बस यज्ञ करने बैठ जाते हैं। धुआँ दिखाने से समस्याएँ नहीं भागती ये इन धर्म के डॉन कों समझाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
और हम मूर्ख जनता के बाशिंदों को मूर्ख बनने की आदत हो गई है। जब भी हमारे जेब में चार रुपये ज़्यादा आते है हम दान-पेटियों में उसे डालकर अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। भले ग़रीब के घर का चूल्हा न जले पर बीसों हज़ार बाबा के खाते में पहुँच जाता है। समाज का एक तबक़ा सिर पर छत के लिये तरसता है पर छत सिर्फ़ मूर्तियों को मिलती हैं। अनाथ दर-दर की भीख़ माँगता है और एक दिन ठंड़ में भूख़ से दम तोड़ देता है, तब हम अख़बार में पढ़कर सिर को हिलाते हैं। आख़िर क्यों हम संत-समाज से ये एक सवाल भी नहीं कर पाते कि आख़िर क्या करता है ये संत समाज?
ये लेख जनहित में जारी, क्योंकि सरकार को तो अब सिर्फ़ गाय का पिछवाड़ा देखना है और मंदिर बनाना है।