दूसरा रास्ता…

दस साल बाद आस्था उसी स्टेशन पर खड़ी थी जहाँ से वो कभी अपनी बहन के साथ घऱ को जाया करती थी। आस्था के साथ चार बच्चे थे और आँखों पर काला चश्मा। वो चश्में के आँखों पर होते हुए भी अपने गुज़रे कल को साफ़-साफ देख सकती थी।

दस साल पहले वो दो बहने थीं। श्रद्धा और आस्था। दोनों रोज शहर के स्टेशन से अपने घर को जाती थीं। दोनों को देख कर कोई भी कह सकता था कि दोनों एक दूसरे से बेइंतहाँ प्यार करती थी।

श्रद्धा। जैसा नाम वैसा नेचर। श्रद्धा सबकी लाड़ली थी। होती भी क्यों न? माँ ने कहा कि भगवान सर्वशक्तिमान हैं और उसे भगवान में श्रद्धा रखनी चाहिये, पापा ने कहा कि माता-पिता अपने बच्चों का भला ही चाहते हैं और उसे माता-पिता में श्रद्धा रखनी चाहिये। टीचर ने कहा कि हमें पढ़ाई पर श्रद्धा रखनी चाहिये।

पर श्रद्धा की एक छोटी बहन भी थी—आस्था। आस्था का भी जैसा नाम वैसा उसका काम। माँ ने कहा भगवान पर आस्था रखो, पापा ने कहा परिजनों पर आस्था रखो और टीचर ने कहा पढ़ाई पर आस्था रखो।

श्रद्धा कभी किसी से ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं करती थी। वो हर किसी को श्रद्धा से मानव के रूप में देखती थी। मानव जो ग़लतियाँ करता है और उस से कुछ सीखता भी है।

पर आस्था की ज़िंदगी अलग थी। आस्था बड़ी भोली थी। उस को लोग अपने हिसाब से चलाते रहते थे। श्रद्धा जानती थी कि यह ग़लत है। उसे आस्था की चिंता होती थी। पर एक दिन श्रद्धा का सारा संसार उसकी आँखों के सामने ढह गया। उसके सारे विश्वास और धारणाएँ ऐसे चकनाचूर हुए कि वो समझ भी नहीं पाई कि ये उसके साथ क्या हो रहा था।

श्रद्धा को प्यार हो गया था। लड़का उसके साथ कम्पनी में काम करता था। वो उससे हमेशा कहती थी कि उसे अपने माता-पिता पर भरोसा था। वो मानती थी कि उसके माता-पिता उसके प्रेम को खुले हृदय से स्वीकार कर लेंगे। आख़िर उसकी पसंद में कुछ बुरा न था। वो अपने प्रेमी की रग-रग को जानती थी। उसे तो यह तक याद था कि उस के प्रेमी ने कब और किस दिन उसके लिये शराब और सिगरेट की लत को ऐसे त्याग दिया जैसे वो उसके लिये कुछ न था। उसे पूरा विश्वास था कि जिस श्रद्धा से उसने भगवान पर भरोसा किया है उसी ने उस लड़के को उसके लिये भेजा भी है। एक ऐसा लड़का जो हर तरह से सज्जन और सौम्य है।

श्रद्धा उस दिन अपने घर पर पहुँची।

“माँ-बाबा, मुझे आप दोनों से एक सलाह लेनी है।”—श्रद्धा ने कहा था।

और श्रद्धा ने उनको उस लड़के के बारे में बताया और पूछा कि वो लड़का उससे शादी के लिये कैसा रहेगा। जवाब उसे मिला थप्पड़ में। बाबा आपा खोने लगे, माँ रोने लगी। और आस्था एक कोने में खड़ी होकर सारा तमाशा देखने लगी।

उन लोगों ने श्रद्धा को कमरे में बंद कर दिया, कम्पनी में झूठा इस्तीफ़ा भेज दिया और उसके लिये अपने पसंद का लड़का तलाशने लगे। श्रद्धा अचंभे में थी कि उस के साथ ऐसा कैसे हो गया। उस ने तो अपने माँ-बाबा को बहुत ही सधे तरीक़े से अपने प्रेमी के बारे में बताया था। तो फिर ये उसके साथ क्या हो रहा था।

श्रद्धा को पूरा भरोसा था कि उस से कुछ तो समझने में भूल कर दी थी। वो किसी बहुत ही महत्वपूर्ण बात से अनजान थी।

धीरे-धीरे दिन गुज़रते गए। उसको विश्वास था कि उसकी ज़िंदगी ख़त्म हो चुकी है। पर वो इस तरह से हार नहीं मानने वाली थी। वो चाहती तो लाखों दिल टूटे लोगों की तरह ज़िंदगी ख़त्म कर सकती थी, पर उसको जानना था कि उसके साथ कहाँ क्या ग़लत हो गया। उसको पूरा भरोसा था कि उसके माँ-बाबा कहीं से ग़लत नहीं हैं। उसको उन पर भरोसा था।

श्रद्धा ने बड़ी ही तल्लीनता के साथ पड़ताल की पर उसके हाथ कुछ नहीं लगा।

शादी वाले दिन वो अपने कमरे में अपनी बहन आस्था के साथ अकेली थी। आस्था के चेहरे पर कोई भी भाव नहीं था।

“जब से मुझे इस कमरे में बंद किया गया है तुमने मुझ से बात भी नहीं की, आस्था। इन सब में मेरी कोई ग़लती नहीं।”—श्रद्धा ने कहा।

पर आस्था के चेहरे के सख़्त भाव वैसे ही रहे। श्रद्धा को लग रहा था कि उसे आस्था को समझाना चाहिये कि उसे सब पर इतना ज़्यादा भरोसा नहीं करना चाहिये। अब श्रद्धा को अपनी बहन की फ़िक्र हो रही थी क्योंकि शायद उसके साथ भी यही होने वाला था।

“आस्था तुम्हें ज़रा सा कम भरोसा करना चाहिये सब पर। वक़्त आने पर न भगवान साथ देता है न परिजन।”—श्रद्धा ने कहा।

“तब तुम्हारे साथ जो हुआ वो ठीक हुआ। मुझे माँ-बाबा के फ़ैसले पर पूरा भरोसा है।”—आस्था ने कहा।

“क्या मतलब?”— श्रद्धा ने ज़ोरों से धड़कते दिल के साथ पूछा।

“जब तुम कम्पनी में जाब करने जा रही थी तो माँ-बाबा ने मुझ से तुम पर नज़र रखने को कहा था। उनको सब पता था।”—आस्था ने कहा।

श्रद्धा को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हो रहा था। वो समझ ही नहीं पा रही थी कि वो क्या बोले।

वहाँ से दूर कही से दूल्हे की बारात आ रही थी। घोड़ी पर चढ़ा दूल्हा मुँह में पान की पीक धरे बैठा था। पान तो उसे दूसरा मिलना था पर मुँह से आती दारू की बदबू भी तो मिटानी थी। उसकी नज़रें यहाँ वहाँ देख रही थी। वो मन में ठान कर आया था कि अगर मंडप के बाहर नई गाड़ी न मिली तो वो शादी नहीं करेगा। पर वहाँ नई गाड़ी खड़ी थी। अब वो सोच रहा था कि उसकी दुल्हन मेकअप में कैसी लग रही होगी।

वहाँ वापस उस कमरे में श्रद्धा की चाची दरवाजा खटखटा रही थी।

“आस्था, लड़का देहरी पर आ गया है। श्रद्धा को ले आओ।”—चाची बाहर बजते बेसुरे नगाड़े की आवाज़ को टक्कर देती हुई चिल्ला रही थी।

काफ़ी देर तक जब किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो चाची ने चाचा को बुला लिया और जब वो दरवाजा तोड़ने को हुए तो अपने आप दरवाजा खुल गया। अंदर से उनको श्रद्धा और आस्था के आने की उम्मीद थी पर आस्था अकेली बाहर आई।

आस्था के सिर पर चोट का निशान था जो ज़्यादा भयावह नहीं था।

आस्था ने उनको बताया कि श्रद्धा भाग गई है। बात उड़ते-उड़ते श्रद्धा के माँ-बाबा के कानों तक पहुँची। उनको समझ में नहीं आया कि जो लड़की इतनी श्रद्धा से उनकी हर बात मानती थी उसने आज ऐसा कैसे कर दिया।

पर फिर आया वो पल जिसमें सब साफ़ हो गया। आस्था ने उनको सब बता दिया।

“आस्था। अब हम दूल्हे को वापस नहीं कर सकते। क्या तुम्हें हम पर भरोसा है?”—आस्था की माँ ने पूछा।

ये कोई सवाल नहीं था… एक संकेत था कि उसके साथ क्या होने वाला है। श्रद्धा ने तो दूल्हे को देखा तक न था पर आस्था जानती थी कि दूल्हा कैसा था। पर आस्था को अपने माता पिता पर पूरा भरोसा था। आस्था अपने नेचर से कैसे पिंड छुड़ाती?

आस्था जानती थी कि अगर उसने दूल्हे से शादी की तो वो कैसी ज़िंदगी जिएगी। पर बात अब यहाँ माता-पिता पर आस्था होने की थी। आस्था ने हाँ में सिर हिलाया और तैयार होकर दूल्हे से शादी कर ली।

और आस्था अपने गुज़रे कल से वापस अपने वर्तमान में आ गई।

“माँ। पापा कहाँ हैं? भूख लगी है।”—आस्था की सबसे बड़ी लड़की ने कहा।

“पापा दादा-दादी की सेवा कर रहे हैं, बेटा।”—आस्था ने कहा। पर उसके पास बच्चों की भूख के लिये कुछ न था। तब भी नहीं जब वे सब पिछली रात से भूखे थे। और आस्था के आँखों से दो आँसू निकल आए। उसको समझ नहीं आ रहा था कि अब उसका क्या होगा। पर उसे भगवान पर आस्था थी। उसे अपने पिता पर आस्था थी—वो पिता जिसने उसकी बात को सुने बिना फ़ोन रख दिया था।

“माँ, हम कहाँ जा रहे हैं?”—आस्था की तीसरी सबसे छोटी बेटी ने पूछा।

“पता नहीं, पर हमें भगवान पर…”

और आस्था अपने वाक्य को पूरा न कर सकी। उसे नहीं पता था कि वो अपने बच्चों के ज़ेहन में आस्था का वो भ्रम डाले या न डाले जिसने उसकी ये हालत कर दी।

आस्था ने आँसू पोंछ दिया। जाने क्यों उसे लग रहा था कि उसकी बहन वहीं कहीं आस-पास थी। समय बीतते-बीतते उसके आँसू भी सूख गए और भरोसा भी ख़त्म हो गया।

“चलो बेटा, हम पकड़म-पकड़ाई खेलें।” आस्था ने अपनी चल सकने वाली तीनों लड़कियों से कहा। लड़कियाँ तुरंत ख़ुश होकर तैयार हो गईं। 

चार घंटे बाद अदनान नाम का आदमी उसी स्टेशन पर आया। साथ में उसके कोई न था… सिवाए श्रद्धा के। श्रद्धा पूरी तरह बदल गई थी।

वो दोनों बेंच पर बैठ गए और ट्रेन का इंतज़ार करने लगे। अदनान ने सामने प्लेटफ़ार्म पर देखा। कुछ कर्मचारी तो रेलवे ट्रैक को धुल रहे थे।

“इनका स्वच्छ भारत का इरादा देखो, सिद्धू। अपनी गाड़ी लेट करवा दी इन्होंने ट्रैक साफ़ करने के लिये। भला हो नट्स का जिस पर देख लिया कि गाड़ी लेट है।”—अदनान ने श्रद्धा से कहा।

“वही तो। इसी बात पर उतारों कपड़े और यहीं नहा लो।”—श्रद्धा बोली। अदनान ज़रा भी मोटा नहीं था पर श्रद्धा के पास अदनान के उसके सिद्धू कहने के जवाब में कुछ और न था।

“तुम तो जब देखो मेरे कपड़े ही उतरवाती रहती हो। वैसे कपड़ों से याद आया। कहो तो तुम्हारे कपड़ों का बैग बेंच के नीचे रख दूँ?”—अदनान ने श्रद्धा से पूछा।

“हाँ, हाँ… क्यों नहीं? रख दो ताकि मेरे सारे कपड़े चोरी हो जाएँ। बस ख़र्चा बढ़ाने को कह दो।”—श्रद्धा ने कहा।

इस पर अदनान ने उसे जीभ दिखाई और वो सामान का एक बैग बेंच के नीचे खिसकाने को हुआ। पर वो रुक गया।

“श्रद्धा। देखो ज़रा।”—अदनान ने कहा।

श्रद्धा ने इस पर बेंच के नीचे देखा और वो दंग रह गई। बेंच के नीचे एक महीने भर का बच्चा सो रहा था।

श्रद्धा ने बच्चे को नीचे से निकाला आवाज़ लगाई। तुरंत वहाँ पर स्टेशन मास्टर आया और उसने सारी बात सुनी।

“मैडम, अभी चार घंटे पहले एक महिला अपने तीन बच्चों के साथ इसी प्लेटफ़ार्म पर आती ट्रेन के सामने कूद गई थी। मुझे लगता है कि ये बच्चा भी उसी का है।”—स्टेशन मास्टर ने बताया।

श्रद्धा और अदनान इस पर स्तब्ध रह गए थे।

“उस महिला के पास कोई बैग या टिकट भी नहीं था। हम ये तक नहीं बता सकते के वो कौन थी। पर हमने चाइल्ड लाइन से वालंटियर्स बुलाए हैं। आते ही होंगे।”—स्टेशन मास्टर बोला।

“मतलब एक और बच्चा अनाथालय में उम्र भर के लिये।”—श्रद्धा ने कहा।

“अब हम क्या कर सकते हैं। मैं किसी को भेजता हूँ बच्चे को लेने के लिये।”—स्टेशन मास्टर बोल कर चला गया।

उसके जाते ही श्रद्धा और अदनान वापस अपनी जगह पर बैठ गए। बच्चा अब भी श्रद्धा की गोद में था। इतने में श्रद्धा को बच्चे के कपड़े गीले महसूस हुए।

“अदनान।”—श्रद्धा ने बच्चे के गीले कपड़े को दिखा कर कहा।

अदनान ने तुरंत श्रद्धा के कपड़ों के बैग में से श्रद्धा की सबसे नरम क़मीज़ निकाली और श्रद्धा को दी। श्रद्धा ने जैसे ही बच्चे को गीले कपड़े से निकाला, वो अचंभित रह गई।

“ये बच्ची है?”—अदनान आश्चर्य से बोला।

श्रद्धा ने तुरंत बच्ची को कपड़े में लपेटा और उसको सीने से लगा लिया।

“मुझे नहीं लगता कि ये कपड़ा भी ज़्यादा देर तक चल पाएगा।”—अदनान ने कहा।

“तब तो हमको इसके लिये कोको पैंट्स ख़रीदने चाहिये न? कैसे बाप हो तुम, मोटू?” श्रद्धा ने कहा।

इस पर अदनान मुस्कुरा दिया। वो जानता था कि श्रद्धा क्या कहना चाहती थी। वो बेंच पर से उठा और स्टेशन पर बने जनरल स्टोर पर गया। जब वो लंगोट ख़रीद लाया तो उसने पैकेट को खोला और श्रद्धा की मदद से बच्ची को लंगोट पहनाया।

“श्रद्धा। इस बच्ची ने अभी तक आँखें नहीं खोली हैं। हमें क्या करना चाहिये?” अदनान ने पूछा।

“देखो, मोटू डैडी। इस तरह से न बोलो। अपनी…”—और श्रद्धा को कोई नाम नहीं सूझा।

“आस्था।”—अदनान ने नाम सुझाया। और बच्ची की आँखें तुरंत खुल गई और वो रोने लगी।

“मेरे ख्याल से ज्ञान नाम ज़्यादा अच्छा रहेगा। या मिष्ठी।”—श्रद्धा ने कहा।

“बेहतर। बहुत बेहतर। सिद्धू से सिद्धू मम्मा बहुत जल्दी बन गई।”—अदनान ने कहा।

“हाँ, चलो अब जा के मिष्ठी के लिये दूध ले कर आओ। फ़ार्मूला एक लगेगा।”—श्रद्धा ने कहा। इस पर अदनान तुरंत वापस जनरल स्टोर की ओर बढ़ा।

श्रद्धा बच्ची की ओर मुड़ी जो उसे चुपचाप देखे जा रही थी।

“मुझे पता है तुम कौन हो। जब से मैं इस जगह पर आई थी मुझे महसूस हो रहा था कि कुछ तो है जिसे मैं देख नहीं पा रही।”

और श्रद्धा के आँखों से एक आँसू आ टपका। पर जल्दी ही श्रद्धा ने उस आँसू को पोंछा। वो इस बार आस्था को न खुद पर हावी नहीं होने देना चाहती थी न उस नन्ही-सी जान पर आस्था का साया पड़ने देना चाहती थी। आस्था जिसने एक औरत को तब तक धोखे में रखा जब तक उसने उस की जान न ले ली।

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