धृतराष्ट्र न बनो भारत…

चेतावनीःमोटी बुद्धि और पतली चमड़ी (Thick Skull And Thin Skin) के लोग इस पोस्ट से दूर रहे। नेताओं के चश्मे से दुनिया देखने वालों नेता का चश्मा उतार लेना चाहिये। इस पोस्ट का उद्देश्य किसी समुदाय, जाति या व्यक्ति को ठेस पहुँचाना नहीं है। पर फिर भी अगर किसी व्यक्ति को कोई शिकायत हो तो कमेंट में लिख कर बताया। समुदाय और जाति की भावनाओं का लेखक ने कोई ठेका नहीं लिया है। पर फिर भी कुछ बुरा लगे तो कमेंट में बताएँ। आवाज़ दबाना अत्याचार और अपराध को बढ़ावा देने की पहली सीढ़ी, अपनी आवाज़ दबने दें।


अगर हम भारतवासियों को किसी बात पर गर्व है तो वो है हमारे मिथक। उनमें से एक मिथक है एक राजा, नाम धृतरास्ट्र। एक ऐसा राजा जिसको अपने बच्चों—कौरवों—की ग़लतियाँ न दिखती थीं। दुर्भाग्य से राजा अंधा था। पत्नी थी गांधारी, पर उसने भी राजा को खुश करने के लिये आँखों पर पट्टी चढ़ा ली।

राजा के लड़के थे सौ, पर उनका सबसे बड़ा दुर्योधन कौरवों में सबसे बड़े और बलशाली था। उसके सामने कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। वो जानता था कि सारा राज-पाट उसी को मिलने वाला है। साथ में उसके पीछे थे निन्यानवे भाई—सब उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाले। एकता में शक्ति होती है ये बात उन भाइयों के देख के पता लगती थी। अंधा धृतराष्ट्र भी दुर्योधन की ही बात मानता था। सब मन मुताबिक़ चल रहा था।

भले ही धृतराष्ट्र के साथ कितनी भी विसंगतियाँ थीं पर वो निश्चिंत था क्योंकि उसके साथ थे भीष्म पितामह। वो भीष्म पितामह जिन्होंने प्रण लिया था कि वो कौरव वंश की रक्षा करेंगे। एक बेहद सधे हुए मनुष्य—गंगा पुत्र। सब अच्छा चल रहा था।

पर फिर आए पाँच पांडव—चचेरे लड़के। उन पाँच में सबसे बड़ा था युधिष्ठिर—सबसे सौम्य और सधा हुआ—धर्मराज। वो दुर्योधन को भाई मानता था, पर दुर्योधन को उसका भाईचारा नहीं दिखता था। तो बात ये थी कि दुर्योधन के साथ था मामा शकुनि। शकुनि ने प्रण लिया था कि वो धृतराष्ट्र के वंश को निपटा के ही दम लेगा। अब तो उसे पांडवों में अपने प्रण का भविष्य दिखने लगा था।

फिर क्या था। शकुनि आए दिन पांडवों के ख़िलाफ़ दुर्योधन के कान भरता और धृतराष्ट्र को मन से भी अंधा बनाता। यों तो दुर्योधन को पांडवों से कोई बैर नहीं होना चाहिये, पर शकुनि दुर्योधन को याद दिलाता रहता था कि युधिष्ठिर उससे उम्र में बड़ा था और उसका राज पाट छीन लेगा—डर का भरपूर प्रयोग किया शकुनि ने। पूरा राष्ट्र था दुर्योधन के पास पर वो पांडवों से इतनी नफ़रत करता था कि उसने पांडवों को राज्य में रहने के लिये सुई की नोंक बराबर जगह देने से उनसे लड़ कर सब कुछ तबाह करना।

अब देखिये अपने भारत राष्ट्र की ओर। जनता धृतराष्ट्र है, जनता ही गांधारी, जनता ही दुर्योधन है और जनता है पांडव। सरकार है को यहाँ पितामह होना चाहिये था पर वो भी धृतराष्ट्र बनी है। और शकुनि तो इतने हैं कि आप गिन भी नहीं पाओगे। इस दफे शकुनि दुर्योधन के कान में राम मंदिर-राम मंदिर का राग अलाप रहा है। दूसरी ओर पांडव—सौ के मुक़ाबले पाँच—कुछ सौम्य है, कुछ—भीम की तरह—क्रुद्ध।

तो अब बचा है महाभारत। बिना कृष्ण के और पितामह के।

महाभारत की ये कहानी हमारे ही देश की है और हमारे देश पर एकदम फ़िट बैठती है। यूँ तो पहले आई सारी सरकारें भी कौरव-पांडव का खेल खेल करती थीं पर अब जिस नस्ल की सरकार है उसे गांधारी बन धृतराष्ट्र की तरह सब अनदेखा करने में कोई परहेज़ नहीं। न इस सरकार को उन शकुनियों पर कोई नियंत्रण करना है जो आए दिन मुँह फाड़कर खुद को याद दिलाते हैं कि ये कितने बड़े वाले हिंदू हैं। ये सरकार का धृतराष्ट्रपन तो तब सामने आ गया था जब इसे हिंसा से जान बचाकर भागते मनुष्यों को वापस बर्मा भेजने में भी कोई गुरेज़ न रहा। इस बार धृतराष्ट्र के पास न तो पांडवों के लिये ज़मीन थी न ही उन्हें सहारा देने के लिये दिल। हाँ, निजी कम्पनियों के रुपये दे कर सेना के लिये नये-नये खिलौने ख़रीदेंगे के पर्याप्त धन था—और अब भी है। और तो और इस सरकार के पास भी साल में दो बार उन हथियारों की प्रदर्शनी करने के लिये अब भी पैसे हैं।

अंध-भक्तों को कड़वी लगेगी पर सच्चाई तो यही है कि टूटी केवल मस्जिद थी। मस्जिद के नीचे से चाहे खोद-खोद के कितनी ही मूर्ति निकाल के दिखा लों, और चाहे और भी नीचे खोद पर पराप्राचीन डायनासोर निकाल लो पर सच्चाई यही है कि मस्जिद तब बनी जब अंग्रेज़ों ने इसी मंदिर-मस्जिद बैर और पंडितयाई भ्रष्टाचार का फ़ायदा लेकर देश को ग़ुलाम बना लिया था। जब मस्जिद बनी तब क्या था मुझे मतलब नहीं, अब मस्जिद वहाँ नहीं तो मुझे उससे भी मतलब नहीं। न मंदिर देश में दम तोड़ती एकता को बना के रख सकेगा न मस्जिद। मंदिर हो या मस्जिद—दोनों कभी लोगों को एक सूत्र में बाँधने के यंत्र थे। पर दोनों समुदाय अंदर-ही-अंदर कितने बँटे हैं ये बात किसी से नहीं छुपी है। अब मंदिर हो या मस्जिद, दोनों ही सदियों से चली आ रही उस धारणा को बल देते हैं कि धर्म के बिना मनुष्य आसमान में बैठे किसी अदृश्य (हृदयहीन) आदमी के आगे छोटा है।

1992 में किसी आडवाणी ने पूछा था कि क्या अन्य धर्मों की तरह हिंदू का कोई पता नहीं हो सकता। उनके मूर्खतापूर्ण सवाल का जवाब उसी समय मिल जाना चाहिये था पर ज़रा खुद भी सोचिये। जवाब केवल एक हो सकता है—नहीं। नहीं, हिंदू का मुस्लमानों, इसाइयों और यहूदियों की तरह कोई एक घर नहीं हो सकता। हिंदू और हिंदुत्व किसे के बाप की जागीर नहीं जो आए दिन उसे तोड़-मरोड़ के हिंदू की परिभाषा बनाए। एक तरफ़ वसुधराय् कुटंबुकम् चिल्लाए और एक ओर राम को मंदिर में क़ैद करके बिठाए।

राम को इस तरह हाईजैक कर प्रयोग होता देख दुःख होता है। जिस राम ने सारी अवधारणाएँ तोड़ समुद्र लाँघ लिया, प्रेम की परिभाषा बनाई, लंगूरों तक को स्वयं का मुरीद कर लिया, उस राम के गले में हिंदुत्व का पट्टा डाल ये उसे (अपने) धर्म के ठेके के लिये अयोध्या में बिठा कर रखेंगे। ये राम की प्रदर्शिनी लगा के अपनी राजनीतिक साख बनायेंगे। राम का तो महल भी ग़रीबों का घर था, उस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं। राम के राज्य में मंदिर अनाथों को पालता था, ग़रीबों को घर और भोजन देता था उस बात से भी इन्हें कोई लेना देना नहीं।

अब ये मंदिर बनाएँगे। क़ानून लाएँगे। पर अगर टूटे भवनों से इन्हें इतना ही प्यार है तो धृतराष्ट्र की तरह सिर्फ़ अपने कौरवों से क्यों प्रेम है। सब कुछ कौरवों के लिये? टूटी तो मस्जिद भी थी। लाओ क़ानून, करो बँटवारा पर दोनों टूटे भवनों को खड़ा कर के राम का उदाहरण दो। राम तो महान राजा था—वो राजा जिसने अंत में जली लंका को फिर से उठ खड़ा होने का वरदान दिया।

पर ऐसा होगा नहीं। सफ़ेद और भगवा वस्त्र में छुपे ये शकुनि, टोपी पहना शैतान ऐसा होने नहीं देंगा। ये कभी कौरवों और पांडवों के बीच का मतभेद मिटने नहीं देंगे। और पितामह बनी धृतराष्ट्रीय गांधारी चुपचाप आँखों पर पट्टी बाँधे रहेगी।

जब भारत का संविधान रचा जा रहा था तो संविधान निर्माता जानते थे कि ऐसा होना बहुत हद तक संभव है कि एक दिन कट्टरपंथी हिंदू सरकार बन जाएगी। संविधान निर्माताओं को डर था कि जिस आपसी भेदभाव और फूट को हथियार बना अंग्रेज़ों ने सदियों ग़ुलाम बना कर देश को लूटा—पर अनजाने ही भारत महाद्वीप पर टुकड़ों में बिखरे भूमिखण्ड को एक भी किया—वो भेदभाव और फूट फिर से इस महाद्वीप को बिखेर सकता है। वो जानते थे कि संख्या में ज़्यादा समुदाय कभी छोटे समुदाय को नुक़सान न पहुँचाए इसके लिये सरकार को किसी एक समुदाय का बनने से बचाना होगा। इसी कारण भारत हिंदू या इस्लामिक नहीं पर एक धर्म-निरपेक्ष गणराज्य है। पर आज सरकार धृतराष्ट्र बन कर सिर्फ़ एक समुदाय की बनना चाहती है। कारण—वोट।

ये जो पूरा मंदिर-मस्जिद का खेल था 1856 से शुरु हुआ और सरकारी उदासीनता के कारण आज तक चल रहा है। बाबर ने मंदिर बनाया, हिंदुओं ने मस्जिद… एक मिनट। पर हुआ बिल्कुल उल्टा। अब सरकार चाहती तो ज़मीन का अधिग्रहण कर दोनों को छुए बिना भूभाग पर एक बड़े विद्यालय का निर्माण कर सकती थी। पर ऐसा हुआ नहीं क्योंकि विद्यालय के निर्माण पर कोई भी वोट जो नहीं देता। सोचो, क्या दोनों समुदाय में से कोई अपने ही बच्चों के लिये स्कूल के निर्माण पर आपत्ति करता। और तो और मुस्लिम समुदाय ख़ुशी-ख़ुशी ऐसा करने देता। पर इस देश में सिर्फ़ अल्लाह और राम का अपने फ़ायदे के लिये नाम लेने वाले को वोट मिलता है। विद्यालय का निर्माण करने पर, बच्चों को ग़रीबी निकालने वालों को कुछ नहीं मिलता। सो भेड़िये नेता की खादी पहन कर मंदिर-मस्जिद का मुद्दा बनाए रखे और वो अब भी चल रहा है। अब आए है मोदी-मोदी और राम-राम चिल्लाने वाले सरकार। मोदी के नाम के बग़ैर इनका खुद का कोई अस्तित्व ही नहीं क्योंकि सारा काम तो पुरानी सरकार कर गई और इनको कोई भी काम बचा दिखाई नहीं देता। सो ताकि मोदी के बाद भी सत्ता मिली रहे तो मोदी का स्थान ले लिया राम ने।

तो अब जनता को तय करना है कि उसे शकुनि के राम-राम और मस्जिद-मस्जिद पर कौरव और पांडव बनना है या दोनों की तरफ़ की खाई पाट कर शकुनि को मात देनी है। चुनना जनता को है। विचित्र संयोग देंखिये धृतराष्ट्र नाम में भी राष्ट्र आता है। राष्ट्र जो राष्ट्र के लोगों से बनता है। पर राष्ट्र अभी आँधों की तरह है। राष्ट्र आज धृतराष्ट्र है।

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