प्रकृति… एक ऐसी माँ जो कभी अपने बच्चों में कोई अंतर नहीं करती। सदियों से मनुष्य अदृश्य और परमशक्तिमान प्रकृति को विभिन्न रूपों में पूजता रहा है। वक़्त के साथ ही समाज का ढाँचा बदलता रहा और प्रकृति की वंदना देवी-देवताओं की स्तुति में बदल गई। इससे किसी को कोई नफ़ा-नुकसान नहीं हुआ। प्रकृति ने ना कभी लोगों की चापलूसी पर ख़ुशी दिखाई, ना ही उसकी नज़रअंदाज़ी पर नाराजगी। तो फ़िर ऐसा क्या है जो हमें प्रकृति को समझने में मदद करे?
आज हम अपने आस-पास देखते हैं तो हमें तमाम समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। रोज अख़बार के पहले पन्ने पर किसी आतंकवादी की करतूत या किसी औरत पर की हुई ज्याद्ती पहले पन्ने पर मिलती है। ऐसे में हम सोच में पड़ जाते हैं कि आख़िर दुनिया ऐसी कैसे बनती जा रही है? ऐसा क्या है जो हमें ऐसा बना रहा है? जवाब में हमें सिर्फ़ ऐसा सन्नाटा सुनाई देता है जिसका कोई अंत नहीं। निठल्ले नेता ऐसे में कुछ बोल देते हैं तो वही हमारे उस सन्नाटे की आवाज़ बन जाती है, जो की ग़लत है। सितम करने वाले के पास कई कारण हो सकते हैं जिनके बारें में पता लगाने का काम मनोचिकित्सकों और न्यायप्रणाली का है।
तो फ़िर हम कहाँ ग़लत रह गए?
तो फ़िर ऐसे में सवाल फ़िर से वहीं आ ठहरता है। आख़िर इसे रोकें कैसे? हम सभी भगवान से सब ठीकठाक रखने के लिये दिन रात उसकी मूरत के आगे नाक रगड़ते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं, मज़ारों पर दिये और चादरों का अम्बार लगा देते हैं; फ़िर भी ठीक कुछ नहीं होता। फ़िर अगले दिन वही आतंकी घटना और किसी बलात्कार की भयावह तस्वीर हमारे आगे आती है। यक़ीनन मज़ारों और मंदिरों में जाने से प्रकृति ख़ुश नहीं होती। उस निरंकार परमात्मा को चापलूसी और चढ़ावे से कोई मतलब नहीं।
हम सभी में से अधिकतर लोगों ने यह ग़ौर किया होगा कि ज्यादातर ज़ुल्म बच्चों और महिलाओं पर ढाहे जाते हैं। रोज सरकार आकड़े जारी करती है और रोज एक नए सच का पर्दाफाश होता है। अपहरण और बलात्कार में हमारा देश दुनिया के कुछ चुनिंदा बदनाम देशों में शुमार है। यहाँ हर घंटे किसी बच्चे का अपहरण और किसी महिला का बलात्कार होना आम बात हो गई है। बचे वक़्त में दुर्घटनाऐं घटती हैं।
हर घंटे किसी बच्चे, बूढ़े या महिला पर ज्यादती होने की ख़बर आमजन को छोटी लग सकती है। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में इनकी गिनती ही कहाँ होती है? पर ऐसा नहीं है कि इसका किसी पर नहीं पड़ता। समाज, सरकार, संस्था, न्याय, व्यवस्था उसके लिये हैं जो अक्षम अथवा कमजोर हैं। बाहूबली और धनाड्य व्यक्ति को न्याय की आवश्यकता नहीं पड़ती। वो समाज से लेकर व्यवस्था को भी ख़रीद लेता है। अफ़्सोस, आज के समय में समाज से लेकर व्यवस्था तक सिर्फ़ धन की नींव पर खड़े हैं। सही अर्थों में, जिन लोगों को अबल व्यक्तियों की रक्षा के लिये बनाया गया था वो आज धनाड्य एवं भ्रष्ट लोगों की सेवा में लगे हैं। यक़ीनन प्रकृति भ्रष्ट एवं सज्जन व्यक्तियों में भी अंतर नहीं करती।
प्रकृति अथवा जिसे भी आप भगवान मानते हैं उसके बारे में एक खास बात ये है कि उसकी बनाई दुनिया में हम सागर की बूंद मात्र भी नहीं। उस परमात्मा को आपकी चापलूसी से कोई मतलब नहीं। यक़ीनन, प्रकृति से प्रेम करने से प्रकृति हम पर भी प्रेम बरसाती है, पर इस प्रेम में वो उन नियमों को नहीं बदलती जिसे उसने ख़ुद बनाया था। नियम जो बहुत ही साधारण और सीधे हैं। अग़र हम इन नियमों को मान लेते हैं तो हम आगे आने वाले किसी भी हादसे को रोक सकते हैं।
प्रकृति का सबसे सरल नियम, सबलता
ये एक सत्य है। सबलता ही कवच है और हथियार भी। सबलता ही वो कवच है जिसकी मदद से हम ख़ुद को बचा सकते हैं, साथ ही किसी अन्य की मदद भी कर सकते हैं। यक़ीनन, दुर्बल व्यक्ति की मदद करना हर किसी के लिये ज़रूरी है, पर सिर्फ़ उसे सबल बनाने के लिये। अकसर ये देखा गया है कि बच्चों और महिलाओं पर होता अत्याचार कम नहीं होता। चूँकि बच्चे शुरुवाती दौर में नज़ुक होते हैं और वक़्त में सही शिक्षा और पोषण से सबल बन जाते हैं, पर महिलाओं की स्थिति हमेशा दुर्बल वाली बनी रहती है। ना तो हम महिला को शिक्षा का उचित अवसर देते हैं और ना ही उसकी ज़रूरतों की कोई फिक्र है। शहर हो या गाँव औरत मानसिक और शारीरिक रुप से बराबर प्रताड़ित की जाती है और वैसे ही कमजोर बनाई जाती है। रोचक पर दुखद तथ्य है कि ज्यादातर औरतों को उनकी इच्छा के विरुद्ध बच्चा जन्मना पड़ता है। इससे भी ज्यादा दुखद तथ्य यह है कि साधारणतः औरत कम पढ़ी लिखी एवं शरीर से कमजोर मानी जाती है। शहर एवं गाँव की महिलाओं को खून की कमी एवं कैल्सियम की कमी से अकसर दो चार होना पड़ता है। जब शरीर में खून और ज़रूरी तथ्य ही नहीं होगा तो औरत लड़ेगी किस बल पर।
परंतु सबलता का मानक सिर्फ़ जिस्मानी सबलता नहीं, धन की सबलता ने आज शारीरिक सबलता को पछड़ दिया है। शायद यही कारण है कि आम जन जानवर से इनसान बन सका है। पहले धन का स्त्रोत युद्ध की लूट हुआ करता था। वक़्त के साथ ये व्यवस्था धन की लूट ने ले ली। आज शारीरिक बल से ज्यादा धन के बल की पूछ है। आप गरीब मज़दूर होकर कुछ नहीं कर सकते, पर धनाढ्य अपंग होकर भी आप दुनिया को जीत सकते हैं। यक़ीनन, आज बल का पर्याय धन है। रुपया-पैसा, सोना-चाँदी या फ़िर सम्पत्ति ही आपके बल की निशानी है। पर क्या महिला के पास ये है।
साधारणतः महिला को किसी भी काम को करने की इजाज़त नहीं होती। उसकी अकांक्षाओं पर कभी उसके लिंग तो कभी उसकी सुरक्षा को रुकावट बनाया जाता है। और तो और महिला को किसी काम का वाजिब मेहनताना भी देने में आनाकानी की जाती है। ऐसे में अग़र महिला प्रेम करने लगती है तो उसकी इस कर्म पर भी लांछन लगाने में समाज से लेकर व्यवस्था भी पीछे नहीं हटते। मुज्रिम कृति लांछन में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार का पूरा कच्चा चिट्ठा दिखाया गया है। Facebook Page पर इस सम्बन्ध में एक Post भी किया गया थाः-
“औरत, तुम शादी तयशुदा करो या प्रेमवश पर शादी करने से पहले अपने पैरों पर दुनिया और माँ-बाप से लड़कर खड़ी हो। तुम औरत हो, तुम्हारे शरीर के एक कतरे से दुनिया का पहला आदमी आया पर तुमने उसे अतिसमर्पण देकर ख़ुद को इतना छोटा कर दिया कि तुम्हारा अस्तित्व ही ख़त्म हो गया। वक़्त आ गया है कि तुम इस मतलबी दुनिया को पहचानों और सबल बनो। एक आश्रित व्यक्ति ग़ुलाम होता है और ग़ुलाम अंततः कुचल दिया जाता है। ये नियम प्रकृति ने बनाया है। इसे समझो और मानों।”
ना ही समाज, ना ही किसी आदमी में ये काबिलियत है कि वो औरत को सक्षम और सबल बनने से रोक सके। अपने शरीरिक परिस्थितियों से लड़ कर भी औरतें हर कार्यक्षेत्र के शिखर पर पहुँच रही हैं। यक़ीनन औरतों को अब अपनी दुर्बलता के भ्रम से मुक्ति मिल रही है। ऐसे में यहाँ समाज और उसको बनाने वाले मर्द को औरत को रोकने का कोई रास्ता नहीं दिखता तो वो उसे जबरन शादी में ढकेलने की कोशिश करते हैं। ऐसे में सिर्फ़ औरत की सबलता ही उसकी असली साथी है। यही है जो उसे बचा सकता है।
पर सबलता का अर्थ कठोरता नहीं। सबलता से इनसान के अंदर संवेदनहीनता नहीं आती, वो आती है मानसिक जड़ता से जिसका सबलता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। प्रकृति ने सबलता का नियम बनाया है पर संवेदनहीनता सिर्फ़ पत्थरों के लिये बना रखी है। यही है प्रकृति का स्वभाव, यही है प्रकृति की प्रकृति।